Friday 20 September 2013

आंधी

आंधी खड़ा रहूं मैं और महसूस करूं
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तेरे हर कण के रौंदे जाने की व्यथा
नहीं मुझे कोई आश्चर्य
तेरे प्रचण्ड वेग का.
सत्य है यहीं दबा जो जितना गहरा
उठ खड़ा हुआ उतना ही विशाल बनकर
दरवाजे और खिड़कियाँ बंद कर
समझते जो महफूज खुद को
ढहने को करीब उनके महल अब
यही है दस्तक
हर जगह कोने में मिट्टी के छा जाने की.

              By 
-अनिल दायमा 'एकला'