Wednesday 31 December 2014

नव वर्ष तेरा पुनः स्वागतम्

स्वागतम् स्वागतम्
नव वर्ष तेरा 
पुनः स्वागतम्
पसरा है पौष 
ठिठुरे-ठिठुरे स्वप्न 
धुंधले-धुंधले से 
ओढ़े हुए ओस 
वहीं सुबह वहीं सूरज
       और 
ये उमंग ये  उल्लास
कितनी सार्थकता
इनमे समाहित?
हर गुजरा पल
करता चला अहसास
छूटे है पटाखे
अर्द्धरात्रि मे
हर्षोध्वनि के साथ
कि नंगी सी गरीबी
पसरी है अब भी
आसपास
हो उठी व्यथित
फुटपाथ पर 
जो जिन्दगी है पड़ी 
जब कोशिश
फटे कम्बल की
भूख मे है जकड़ी
नींद मे स्वर्ग वासी 
हो चले थे कुछ क्षण
बनी थी रोटियाँ
बिन कर कुछ कण
छीना कणों का सुकून
किसी हर्षोल्लास ने
डाला नींद मे विघ्न
छत वालो के
विलास ने
और यों जीती मरती कहानियाँ
कही बचपन कही बुढापा
और न जाने
कितनी जिन्दगानियाँ।

         'एकला'

Tuesday 16 December 2014

निर्भया: सभ्य समाज का सच

निर्भया तुम खुश रहना
आसमाँ की बाहों में 
प्यार की गलियों मे घूमना बेखौफ
बचपन बिताना मुस्कुराती राहों मे


खिलखिलाना पूर्व वाला तारा बन
रहना अंबर की छाँव मे
नहीं वहाँ भेडिया कोई
न कोई दरिंदा 
न काँटा कोई जो चुभे तेरे पाँवों मे

चाँदनीं मे झूलना तुम
स्वाति से मोती चुनना
नहीं आना यहाँ
यहाँ न कोई इन्साँ
बिकते हैं जज्बात
कत्ल होतीं बेटी हर गाँव मे

रहना आकाशगंगा के किनारे
बहना बन रागिनी
लौटना ना फिर से
सिकती है रोटियाँ चिताओं में 
निर्भया तुम खुश रहना
आसमाँ की बाहों मे

     'एकला'

Thursday 27 November 2014

अनहदनाद

खिंचा चला  जाता हूँ
होते ही भोर
होता एहसास पंछियो की
परवाज सा
और लगता जैसे
कर रहा स्पर्श मैं
उस अनहदनाद को
जो है किलकारियो मे समाहित
कर बेदखल
आसमाँ की नीरवता को।


ढेरों मिट्टी को
महल बनाते नन्हे हाथ
ढहने से भी
न होते निराश
समेट लाते फिर
कणों के पर्वत
अपनी झोली में
और देते ख्वाबो को
नया रूप।

बारिश के पानी की छपाक छपाक
देती गतिशीलता
ठहरे पाँव को
और चलते जाते
इत्ते इत्ते से कदम
कर दुर्गम राहो की
अवहेलना
कही जाति कही धर्म
तोड़ कर कुछ
झूठे भ्रम
लेकर मुस्कुराती जीत
मुठ्ठियो मे
थामकर हाथ से हाथ
बाँटते खुशी हाथों हाथ ।

ग्रन्थियो का अस्तित्व
हो जाता लुप्त
एक हँसी जब छूटती
आँसुओं के पीछे से
आलिंगन को
आतुर तो बहुत मै
पर कैसे जी लूँ फिर से
इस निश्छल भेंट को
जो दूर होती चली गयी
हर नये आज के साथ ।

एकला

Thursday 20 November 2014

दी अवशेषो ने दिशा


बूँद बूँद आशाएँ 
टूटती टपकती रही
जीवन व्योम से
रलती मिलती रही
मन मरूस्थल से
और हो चली एकमेक
समय की वायु से
हुआ अपरदन
दिखने लगी खण्डित सतह
उनकी पुनः ।

निष्ठुर प्रकृति का
फिर हुआ कहर
हुआ जल अपरदन
नयनो से
और बह चली
पहुँची दुखो के समुद्र मे।

जमता चला गया जहां अवसाद
कभी भूत कभी वर्तमान का।

तिनका तिनका
चिड़िया गान से
हुई उमंग संचारित
और दी अवशेषों ने दिशा 
युग निर्माण की।

  एकला

Tuesday 11 November 2014

गम मुस्कुराने लगे हैं

गुनगुनाने लगे हैं गम
दर्द भी
साज सजाने लगे हैं

बुँदे बरसने लगी
आँखों से
बिखरे सपने
इन्द्रधनुष बनाने लगे हैं

गाता जा रहा लम्हा
पल शोर मचाने लगे हैं

बदल गई हर हवा
सूखे पत्ते
कहानी सुनाने लगे हैं

फिर एकला
अपनों की भीड़ मे
बिछुडे याद आने लगे हैं 

ढूँढता बहाने
खुशियों के मैं
कि गम
मुस्कुराने लगे हैं।

    'एकला'

Wednesday 5 November 2014

मरू जीवन मेरा

मरू जीवन मेरा
तपन ख्यालो की
है खामोशी का डेरा
नागभनी सी उभरे यादें
मनावे मातम घनेरा
शीतलता की आश नही
छाँव चली दूर कही
डसे काली शाम
लू लावे सवेरा
उड़ उड़ आती
स्वप्न धूल
चुभोये हृदय मे शूल
सूखी आँखें ढूँढे शून्य मे
कोई सावन भलेरा
आह! कल का जमाना
आज तिनका आशियाना
तन्हाई की शाखाओं पर
पाये अपना बसेरा
मरू जीवन मेरा
तपन ख्यालो की
है खामोशी का डेरा ।

एकला

Wednesday 29 October 2014

तुम्हें माँ कहूँ या ना??

सुना है तुम कहती थी
तुमने प्यार किया
एक नारी अपूर्ण है
पुरूष बिना
इसलिए पूर्णता की प्राप्ति है
तुम्हारा प्रेम।
तुम कहती थी
कि तुम्हारी राखी ने
भाई को कोई
जख्म ना दिया
क्योंकि थामना था तुम्हें
हाथ जीवनसाथी का।
सुना है बाबू जी की इज्जत
दुश्मन बन बैठी थी
तुम्हारे प्यार की
क्योंकि दी जाती थी
हर बार उसकी दुहाई।
सुना है कि 
माँ के आसुओ से
गलने लगे थे
सपने तुम्हारे।
पर आज मैंने देखा है
नहीं जानती तुम
प्यार क्या होता है
तभी मैं
रोता, चिल्लाता रहा
कचरे के ढेर पर पड़ा
पर ना रूके तुम्हारे कदम
ना देखा तुमने मुझे
मुड़कर एक बार।
अब क्या रह गया था
जो लगने लगा तुम्हें
प्यार और ममता से प्यारा
और छोड़ चली तुम
सर्द रात मे
कुतो के बीच
लपेट कर कपडो मे माँ ।
दे ना जवाब
तुम्हें माँ कहूँ या ना??
     
                 एकला 

Friday 17 October 2014

छू लूँ बिटिया पाँव तेरे

                                                                      
तेरे माथे को चुम लूँ     
या छू लूँ बिटिया पाँव तेरे
जो हो चली
तुम जननी
सभ्यता की

तेरे न होने से

सिमट रहा मै
जिस भाव मे
अभागा हो चला
या पा लिया सब कुछ मैंने

खेली हो तुम

मेरी हँसी मेरी नजर मे
और  रह चली                

आँखो मे मेरी

नेत्रज्योति बन

अब क्या देख पाऊँगा

बिन तेरे कुछ भी मैं
पर अब ना झपकेगी
ये पलक कभी
कि बिटिया मेरी
बन चली स्रोत संयम का
और बह रही
प्रकाश बन।


हो ही लू सजदा

तेरे आगे
कि छू न सकी तुम्हें
प्रदुषित उद्घघोषणा कोई
तुम चलो बिटिया
पथप्रदर्शक बन मेरी
आ ही रहे है पापा
पीछे पीछे तुम्हारे।

'एकला'


Tuesday 7 October 2014

मुफलिसी


क्या कहूँ, क्या बताऊँ 
कैसे करूँ दुख अभिव्यक्त
रूदन हर कोने जाने किसका
है हर वक्त

आसमाँ तले जिन्दगानियाँ यों पले
जैसे खुशियाँ
हो चुकी जब्त

साँसो की खातिर दौड़ते लोग 
थमी धड़कने
आहिस्ता आहिस्ता
बहता रक्त

मुफलिसी पलको तले आ पसरी
बन अंधेरा
होने लगी अब तो
नींद भी पस्त।

   "एकला" 

Saturday 6 September 2014

पुरूषार्थ

अकंटक हो पथ, पुलकित होता हर पल
तो क्यो टूटता दल, क्योकर बनता जल?

रोशनी होती नभ की पहचान
तो क्यो सूरज छुपता
अंधेरा होता बस अवरोधक
तो क्यो आते तारे
क्यो चाँद उगता

जीवन के दो पहलू
सुख और दुख
करले आलिगन इनका
होकर उन्मुख

पुरूषार्थ का थाम दामन
झुका ले आकाश
देकर आहुति स्वयं की
बन तू प्रकाश